- सुनीता ‘आनन्द’
अपनी किसी न किसी विशेषता के कारण कुछ स्थान हमें अपनी ओर खींचते हैं, तो कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं कि उनके दर्शन करने के लिए हम किसी स्थान विशेष की यात्रा का कार्यक्रम बना ही लेते हैं। हरियाणा के अम्बाला छावनी शहर स्थित कहानी लेखन महाविद्यालय भी मेरे लिए एक ऐसा ही आकर्षण का केन्द्र रहा है। मैं इसे मेरा सौभाग्य ही कहूँगी कि मुझे 4 दिसम्बर 2011 को उस घर-आँगन को देखने का मौक़ा मिला जिसके कण-कण में डाॅ. महाराज कृष्ण जैन का स्पर्श बसा है और इस स्पर्श का जादू श्रीमती उर्मिकृष्ण की कलम से साहित्यिक पत्रिका शुभ तारिका(मा.) के माध्यम से आज देश-दुनिया के साहित्यिकों पर आशीर्वाद की छाया बनकर छाया हुआ है।
श्रद्धेय उर्मि जी फोन पर बहुत बार आमंत्रित कर चुकी थी कि कभी अम्बाला की तरफ आना हो तो भई विद्यालय (कहानी लेखन महाविद्यालय) में भी ज़रूर आओ। बाद में वो कहने लगीं थीं कि किसी और काम से चण्डीगढ़ या अम्बाला का चक्कर न लगे तो न सही किसी दिन स्पेशल अम्बाला ही चले आओ। उनका इतना स्नेह पाकर मन करता कि अम्बाला यात्रा का स्पेशल प्रोग्राम बना ही लूँ। पर पति (आनन्द प्रकाश ‘आर्टिस्ट’) की व्यस्तता के चलते यह सम्भव नहीं हो पाया। पर जब नवम्बर 2011 में हरियाणा साहित्य अकादमी ने श्रेष्ठ कृति पुरस्कारों और पुस्तक प्रकाशन अनुदान की घोषणा की तो मेरे पति (आनन्द प्रकाश ‘आर्टिस्ट’) की पाण्डुलिपि ‘कितने पास कितने दूर’ को प्रकाशन अनुदान के लिए स्तरीय पाए जाने पर उन्होंने स्वयं उर्मि जी का आशीर्वाद लेने और उनसे अपनी पुस्तक की भूमिका लिखवाने के लिए अम्बाला यात्रा का कार्यक्रम बनाने की बात मुझसे कही। सौभाग्य से इसी बीच 4 दिसम्बर 2011 को मुझे भी चण्डीगढ़ किसी काम से जाना था। अतः तय हुआ कि 3 दिसम्बर को भिवानी से चण्डीगढ़ पहुँचे और 4 दिसम्बर को लौटते वक़्त अम्बाला में उर्मिकृष्ण जी से मिलेंगे। उर्मिकृष्ण जी से मिलने का प्रोग्राम बना तो साहित्य में रुचि रखने वाले मेरे छोटे सुपुत्र सर्वेश ने भी साथ चलने की इच्छा ज़ाहिर की।
अपना चण्डीगढ़ का काम निपटा कर हम 4 दिसम्बर 2011 को बाद दोपहर साढ़े बारह बजे कहानी लेखन महाविद्यालय अम्बाला छावनी के मुख्य द्वार पर थे। वहाँ ‘कृष्णदीप’ ए-47 तो लिखा था, किन्तु आधुनिक महाविद्यालयों की तरह दिखावा और विज्ञापन करने जैसा कोई बोर्ड अथवा बैनर कहीं नहीं था। इसी वज़ह से आॅटो रिक्शाॅ वाला भी एक लम्बा सा चक्कर लगा कर यहाँ पहुँचा था। वरना लौटते वक़्त हमने देखा था कि शास्त्री काॅलोनी में प्रवेश करते ही बहुत ही थोड़ी सी दूरी पर बाईं तरफ मुड़ने वाली पहली ही गली में थोड़ा सा चलने पर दाईं तरफ ‘कृष्णदीप’ ए-47 है, जिसे कहानी लेखन महाविद्यालय अम्बाला छावनी के नाम से जाना जाता है।
खैर मुख्य द्वार पर कृष्णदीप ए-47 देखते ही यह निश्चित हो गया था कि हम सही जगह पहुँच गए हैं। अतः आॅटो रिक्शाॅ वाले को किराया देकर हमने उसकी छुट्टी की और लोहे की पत्तियों से बने दरवाज़े को खोल कर हम अन्दर प्रवेश कर गए। अन्दर हमारे बाईं तरफ बने एक मकान का बरामदा था जिसमें दो-तीन कुर्सियाँ ऐसे लगी थी कि जैसे हमेशा ऐसे ही लगी रहती हों। दाईं तरफ काफी खुला आँगन पार करके एक अलग मकान था। अनुमान से हम कुर्सियों वाले बरामदे को ‘कृष्णदीप’ का बरामदा मान कर आगे बढ़ गए और ठीक कुर्सियों के पास जाकर अंदर के दरवाजे को खटखटा दिया। अन्दर वही चिर-परिचित आवाज़ जिसे अक्सर फोन पर सुनते थे गूँजी-‘‘विजय!’’ और इसके कुछ ही क्षणों बाद विजय जी दरवाज़ा खोलकर हमारे सामने हाज़िर थे। विजय जी हमें अन्दर लेकर गए। परिचय देने की आवश्यकता नहीं पड़ी, उर्मि जी सामने थीं, उन्होंने आओ बहुरानी कहकर मेरा स्वागत किया तो मैंने भी आगे बढ़कर उनके चरण स्पर्श किए। उन्होंने मुझे गले लगा लिया। अभिवादन की औपचारिकता के बाद हम सब बैठक में बैठ गए। साहित्यिक बातें होने लगी। इसी बीच उर्मि जी स्वयं चाय बना लाईं। पता ही नहीं चला कि विजय जी कब उठकर गए और बाज़ार से गरमागरम समोसे ले आए। जहाँ मैं बैठी चाय ले रही थी उसके ठीक दाईं तरफ के सामने वाले कोने में एक छोटी सी चैकी पर डाॅ. महाराज कृष्ण जैन की तस्वीर सजी थी। लग रहा था कि जैसे जैन साहब भी चाय की चुस्कियों और हमारी बातों में शामिल होकर मंद-मंद मुस्करा रहे हैं। मेरे ठीक बाईं तरफ की दीवार पर जैन साहब की दूसरी तस्वीर थी, जो उनके भौतिक रूप से इस संसार में न होने का संकेत दे रही थी। मेरा ध्यान कभी दाईं तरफ की तस्वीर पर जाता तो कभी बाईं तरफ की पर और कभी इन दोनों से हटकर मेरी नज़र त्याग व तपस्या की देवी के रूप में मेरे सामने बैठी उर्मि जी के चेहरे पर जा टिकती। इन सबमें मैं इतनी खो गई थी कि, मुझे पता ही नहीं चला कि विजय जी कब अपनी चाय समाप्त करके अपने आॅफीस में चले गए थे। उर्मि जी ने किसी काम से विजय जी को दोबारा आवाज़ दी थी तो पता चला था कि वो अपने काम में व्यस्त हो गए हैं। आने वाली 15 तारीख को शुभ तारिका का अंक तैयार करने के काम का दबाव उन पर था। मैंने महसूस किया था कि जैसे जैन साहब भौतिक रूप से वहाँ उपस्थित न होकर भी आत्मा रूप में वहाँ उपस्थित थे। तभी तो सब कुछ पूरे अनुशासन और नियम से ठीक वैसे ही चल रहा था जैसे कि उर्मि जी जैन साहब के बारे में शुभ तारिका के सम्पादकीय में अक्सर ज़िक्र करती रही हैं।
मेरे लिए यह बड़ा सुखद अनुभव था कि एक तरफ शुभ तारिका का आगामी अंक तैयार हो रहा था और दूसरी तरफ हम बातें भी कर रहे थे। बैठक में ही एक तरफ वह टेबल भी लगी थी जिसके उस पार की कुर्सी पर बैठ कर उर्मि जी रचनाओं का सम्पादन करके शुभ तारिका में प्रकाशन के लिए विजय जी को सौंपती हैं। इस टेबल के साथ लगते कमरे में कम्प्युटर और पुस्तकें तथा पत्र-पत्रिकाएं हैं, तो इस कमरे के साईड में और सम्पादक टेबल के पिछवाड़े खुलने वाले दरवाजे़ के साथ लगते कमरे में शुभ तारिका का वह कार्यालय है, जहाँ बैठकर विजय जी शुभ तारिका के लिए अपने काम को अंज़ाम देते हैं। इस कमरे का एक दरवाज़ा बाहर उत्तरी दीवार की तरफ खुलता है तो दूसरा दक्षिण-पूर्व की तरफ के खुले आँगन की तरफ। इसी तरह का एक कमरा बैठक के साथ भी बना हुआ है जिसका एक दरवाज़ा अन्दर बैठक में खुलता है तो दूसरा बाहर की तरफ। जहाँ उर्मि जी की सम्पादन टेबल है, उसके ठीक दाईं तरफ रसोईघर है, जिसकी खिड़की से बाहर का खुला आँगन और दीवार के साथ बना कुआं दिखाई देता है। पर जब तक आपको कोई यह बताएगा नहीें कि यह कुआं है, आप समझ नहीं पाएंगे कि यह क्या है? क्योंकि साथ ही दीवार पर गोल पत्थरों से माॅडर्न आर्ट शैली में कलाकृति बनी है तो उसके ठीक नीचे कुएं की मेढ़ पर रंग-बिरंगे गमले इस तरह सजे हैं कि कुआं बिल्कुल भी दिखाई नहीं देता है। अगर किसी की इच्छा असली कुआं पूजन देखने की है तो वह यहाँ आकर देखे और जाने कि कुआं पूजन क्या होता है?
हम अंदर बातों में मग्न थे कि मेरा बारह वर्षीय बेटा सर्वेश बाहर इस कुएं की फोटोग्राफी करने में व्यस्त था। सर्वेश को अपने रीलयुक्त कैमरे से फोटोग्राफी करते देख उर्मि जी ने विजय को अपना डिजिटल कैमरा ले आने के लिए कहा था और विजय जी हाज़िर हो गए थे डिजिटल कैमरे के साथ बाहर लाॅन में। यहीं पहुँच कर उर्मि जी ने हमें कुएं के बारे में बताया था और हमने इसी कुएं के पास खड़े होकर श्रीमती उर्मिकृष्ण और विजय कुमार को उनकी मेहनत और उपलब्धियों के लिए सम्मानित किया था। इस दौरान फोटो कभी विजय ने खींची थी तो कभी सर्वेश ने। सर्वेश को आँगन में रखे बहुत सारे गमलों और उनमें खिले देशी-विदेशी फूलों की फोटोग्राफी करते देख उर्मि जी ने इसकी डायरी में लिखा था-‘‘प्यारे-प्यारे बेटे सर्वेश श्री आनन्द प्रकाश और सौ. सुनीता के होनहार बेटे हैं, छोटी उम्र में बड़ी समझदारी और शांत स्वभाव है। फोटोग्राफी और फूलों से प्यार, बड़ों के प्रति आदर की दृष्टि उनका सराहनीय गुण है। मेरा आशीर्वाद उनके जीवन व भविष्य के लिए, वे शिखर छुएं!’’
इसके बाद हम जैसे ही वहाँ से लौटने को तैयार हुए थे, उर्मि जी ने डाॅ. महाराज कृष्ण जैन की तस्वीर के सामने खड़े होकर मुझे तिलक लगाकर साड़ी भेंट करके सम्मानित किया था। मैंने देखा था इस दौरान उर्मि जी की आँखें छलक पड़ी थीं पता नहीं यह हमें विदा करने के वक़्त महाराज कृष्ण जैन के न होने के दुःख में निकले आँसू थे या……।
खैर मैंने थोड़ा सामान्य रहते हुए उर्मि जी को सम्भाला। उनका ध्यान बंटाने के लिए विजय जी से कहा कि वो हमें कम्प्युटर पर वो फोटो दिखाएं जो उन्होंने अपने कैमरे से खींचे हैं। विजय ने फोटो कम्प्युटर में अपलोड किए थे तो सर्वेश ने इन सबकी काॅपी अपने पेनड्राईव में ले ली थी। मेरे पति ने अपने कहानी संग्रह ‘कितने पास कितने दूर’ की पाण्डुलिपि भूमिका लिखने के लिए उर्मि जी को सौंपी थी। उर्मि जी ने हमें पता लगने दिए बिना ही सर्वेश को सगुन का लिफाफा देते हुए कहा था कि,‘‘बेटा इसे सम्भाल कर रखना, घर जाकर ही खोलना इसे।’’ इसी बीच न जाने विजय जी कब बाज़ार जाकर सर्वेश के लिए बिस्कुट और कुरकुरे आदि ले आए थे और मेरे मना करने पर भी उर्मि जी ने उन्हें मेरे बैग में रखवा दिया था।
बातों-बातों में पता ही नहीं चला कि कब ढाई बज गए और हमारा वहाँ से ज़ल्दी चलने का समय हो गया। क्योंकि इसके बाद चलते तो हमें भिवानी समय पर पहुँचाने वाली बस नहीं मिलनी थी। वहाँ से चलने का दिल न करते हुए भी मज़बूरन हमें अपने बैग समेट कर निकलना पड़ा। उर्मि जी हमें दरवाज़े तक ही नहीं, बल्कि गली में दूर तक छोड़ने आई और विजय की कार्यालयी व्यस्तता के बावज़ूद विजय जी को कहा कि वह हमें शास्त्री काॅलोनी के साथ से गुज़रते जी.टी. रोड़ पर बने आॅटो रिक्शा स्टाॅप पर ले जाकर आॅटो में बैठाकर आए।
हमें विदा करते वक़्त उर्मि जी की आँखें फिर छलक पड़ी थीं। उर्मि जी के चरण स्पर्श करके उनसे विदा होने के बाद जब गली के मोड़ पर मुड़ते वक्त मैंने एक बार फिर कृष्णदीप की तरफ देखा था तो वह दरवाज़े पर खड़ी हाथ हिला रहीं थीं। मैंने भी उन्हें पुनः अभिवादन किया और मोड़ मुड़ गई। सामने शास्त्री काॅलोनी का गेट था, इससे निकल कर बाएं घूमकर सीधा ऊपर की ओर थोड़ी चढ़ाई चढ़ कर हम जी.टी. रोड़ पर पहुँचे थे और इसे पार करने के बाद हम बस स्टैण्ड की तरफ जाने वाले एक आॅटो रिक्शा में बैठे थे। यहाँ से बस स्टैण्ड ज़्यादा दूर नहीं है। अतः हमें पहुँचते देर नहीं लगी, किन्तु जैसे ही आॅटो रिक्शा से उतर कर पुल के नीचे से होते हुए सड़क के दूसरी तरफ जा रहे थे विजय जी का फोन आया कि मैडम ने सर्वेश को जो बाल पुस्तके भेंट की थीं वो यहीं रह गई हैं। हमने कहा कि कोई बात नहीं मैडम का आशीवार्द ही काफी है, पुस्तकें फिर कभी ले लेंगे। इस पर विजय जी ने मैडम से बात करके बताया कि नहीं मैडम का आदेश है और वह पुस्तकें लेकर बाईक से आ रहें हैं, हम उन्हें पुल के नीचे मिलें। इसके कुछ ही मिनटों बाद विजय जी हमारे सामने थे और सर्वेश को पुस्तकें देने व हमें हमारी बस में बैठाने के बाद ही लौटे थे।
हमारी बस चली पड़ी, मीलों का फासला तय हुआ हम भिवानी पहुँचे। भिवानी पहुँच कर हमने उर्मि जी को फोन किया और बताया कि हम सकुशल भिवानी पहुँच गए हैं। इसी बीच सर्वेश ने सगुन के लिफाफे का राज़ खोला कि दादी जी ने लिफाफे में पाँच सौ का एक करारा नोट रख कर मुझे दिया है, तो मैंने इस बारे में भी उन्हें कहा कि बच्चे को इतने रुपए देने की क्या आवश्यकता थी आपका आशीर्वाद ही काफी था, ज़्यादा करती तो आप दस रुपए दे देती वही काफी थे। इस पर उर्मि जी ने कहा था कि मैंने अपको तो कुछ नहीं दिया है बहुरानी, अपने पोते सर्वेश को यह सब देने का अधिकार है मुझे, भगवान करे उसको दिए पाँच सौ रुपए बढ़ते-बढ़ते आपके घर में पाँच करोड़ तक पहुँचें। इसके बाद मैं कुछ नहीं बोल पाई। उर्मि जी ने आत्मीयता ही इतनी अधिक ज़ाहिर कर दी थी कि ऐसे में इसके लिए आभार प्रकट करना भी एक औपचारिकता ही होता शायद। बाद में भी कई बार मेरी उनसे बातें हुई हैं और उन्होंने मुझे हर बार बहुरानी कहकर सम्बोधित किया है।
सच में स्नेहभरा सम्बोधन सब दूरियां मिटा देता है। भले ही समय के पटल पर अंकित होती दिन,महीनों और सालों-साल की दूरी किसी यात्रा की स्मृतियाँ धंुधली कर दे किन्तु मुझे नहीं लगता कि कोई भी दूरी मेरी 4 दिसम्बर 2011 की अम्बाला यात्रा की स्मृतियों को कभी धुंधला कर पाएगी।
– सुनीता ‘आनन्द’
सर्वेश सदन,आनन्द मार्ग, कोंट रोड़
भिवानी-127021 (हरियाणा)
मो. नं.-09416811121