वर्तमान युग नवाचार और अनुसंधानों का युग है। वैश्विक स्तर पर नवाचार विकास की धुरी बन चुका है। प्रत्येक क्षेत्र में कामयाबी का एक ही बीज मंत्र है, नई सोच, नया आईडिया। यानी मौलिकता या रचनात्मकता आज के युग की करेंसी बन गई है। रचनात्मकता या अनुसंधान का एक ही आधार है, मौलिक चिंतन। हमारे अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने सोचा, सवाल उठाए, समस्याओं से जुड़े और उन्हें सुलझाया। यह काम उन्होंने अपनी प्राचीन भारतीय ज्ञान परंपरा के खगोलीय सूत्रों और संस्कृत भाषा में ही किया, जिसमें हम सोचते और सीखते हैं। यानी उनकी मातृभाषा और कर्मभाषा एक ही थी, तभी ऐसा संभव हो पाया। जरा सोचिए अगर भारत के 140 करोड़ लोग अपनी रचनात्मकता को हिन्दी में वाणी देने में समर्थ हो जाए तो हमें ताकतवर और पूरी दुनिया में नंबर वन देश बनने से कोई नहीं रोक सकता।
हाल ही में चंद्रयान-3 की सफलता से भारत के जन-मन में धरती से आकाश तक उल्लास ही उल्लास है। भारत चंद्रमा पर पहुंचने वाला दुनिया का चौथा देश बन गया है और उसके दक्षिणी ध्रुव पर पहुंचने वाला पहला राष्ट्र। इस वैश्विक उपलब्धि का श्रेय भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के वैज्ञानिकों के अथक परिश्रम और संकल्पशक्ति को जाता है। इसरो प्रमुख एस. सोमनाथ ने कहा कि भारत वैदिक काल से ही ज्ञानी समाज था और उसमें संस्कृत की भूमिका रही है। गणित, चिकित्सा विज्ञान और खगोल विज्ञान आदि विषय संस्कृत में लिखे गए। कुछ समय पहले उज्जैन में महर्षि पाणिनि संस्कृत और वैदिक यूनिवर्सिटी के दीक्षांत समारोह के संबोधन के दौरान भी सोमनाथ ने कहा था कि जो लोग कंप्यूटर और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस सीखना चाहते हैं, उनके लिए संस्कृत भाषा लाभकारी सिद्ध हो सकती है। उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि आठवीं शताब्दी की पुस्तक ‘सूर्य सिद्धांत’ में सौर ऊर्जा और टाइम स्केल के बारे में बताया गया है। उनका यह भी मानना है कि अरब देशों से होते हुए विज्ञान के हमारे सिद्धांत पश्चिमी देशों में पहुंँचे जहां उन्होंने इन सिद्धांतों को अलग स्वरूप में पेश कर अपना बता दिया। आज जब संस्कृत की महत्ता स्थापित हो गई है तो सभी विश्वविद्यालयों में संस्कृत ज्योतिर्विज्ञान संकाय बनाने की आवश्यकता है।
भाषा संस्कृति की वाहक होती है और संस्कृति मूल्यों को आधार देती है, जिसके सहारे हम दुनिया में अपनी अलग जगह बनाते हैं। अपने बच्चों को भाषा सिखाते समय हम उसे सारे जीवन काम आने वाला एक औजार सौंप रहे होते हैं। क्योंकि भाषा विचारों की वाहक ही नहीं, विचारों की जननी भी होती है। वही अमूर्त विचारों को मूर्त बनाती है।
हिंदी शब्दावली मुख्यतः संस्कृत आधारित है जो अन्य भाषाओं के लिए सहज स्वीकार्य है। और इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि संस्कृति के संवाहक के रूप में भाषा से बड़ा कोई संवाहक नहीं है। गांधी जी कहते थे कि हृदय की कोई भाषा नहीं है। हृदय, हृदय से बातचीत करता है और हिंदी हृदय की भाषा है। हिंदी में वह क्षमता है जो आंखों से बहती अश्रुधारा का वर्णन इस रूप में करती है कि पाठक को आंसू बहा रहे व्यक्ति की मानस स्थिति का बोध हो जाता है। क्या किसी अन्य भाषा के भाव इस तरह हृदय तल तक महसूस किए जा सकते हैं भला? हंँसी किसी भी भाषा में अभिव्यक्त हो सकती है किंतु दूसरों की पीड़ा, दर्द का अनुभव मातृभाषा में ही बेहतर होता है। हिंदी भावों से भावों को जोड़ने वाली भाषा है। हिंदी के उपयोग पर अपमान नहीं बल्कि अभिमान जैसे भावों के संरक्षण की आवश्यकता आज भी है क्योंकि यह भाषा हमारी अस्मिता है, हमारी पहचान है।
नवाचार का एक ही आधार है, मौलिक चिंतन। यानी हम सवाल उठाएं, समस्याओं से जुड़कर उन्हें सुलझाएं और यह काम उसी भाषा में हो सकता है जिसमें हम सोचते और सीखते हैं, यानी अपनी मातृभाषा, अपनी राष्ट्रभाषा हिंदी में। हम यह भी जानते हैं कि दुनिया में आते ही जिस भाषा के शब्द बच्चों के कान में पड़ते हैं, उम्र भर उसे सुरीले लगते हैं। बच्चा जो भाषा घर में बोलता-सुनता है, वह उसी में बेहतर सोचता और सीखता है। तब दिल, दिमाग और जुबान के बीच तालमेल बन जाता है और इसी ताल-मेल के बीच मौलिकता पैदा होती है और मौलकिता से नवाचार व अनुसंधान होते हैं। मातृभाषा हमें मौलिक और रचनात्मक बनने में सहायता करने के साथ-साथ अबोध बालक-बालिकाओं को उनकी सांस्कृतिक विरासत से सिंचित करती है। आज भारतीय योग परंपरा पतंजलि के योग सूत्र सारी दुनिया तक हमारी भाषा हिंदी के कारण ही पहुंचे हैं। विभिन्न राजनेताओं, राजनायिकों ने वैश्विक स्तर पर अपने वक्तव्य से हिंदी को पहचान दिलाई है।
भारतेंदु हरिश्चंद्र जिन्होंने हिंदी को समृद्ध करने और बहुआयामी बनाने का महान कार्य किया, आज उनकी की गई घोषणा-
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल। बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटै न हिय को सूल।।
सिद्ध होती नजर आ रही है।
आज हिंदी व्यावहारिक रूप से न केवल राजभाषा के पद पर आरुढ़ है बल्कि विश्व संवाद की एक सशक्त भाषा के रूप में उभरी है और विश्व समुदाय उसका भरपूर स्वागत कर रहा है। हिंदी अब अपने दायरे से बाहर निकाल विश्व जगत को अचंभित और प्रभावित कर रही है। अंतरिक्ष, वेब, विज्ञापन, संगीत,सिनेमा, पर्यटन, बाजार आदि ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जहां हिंदी अपने पांव पसारती न दिख रही हो।
आज हिंदी दुनिया की दूसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। फिजी, नेपाल, मॉरीशस, त्रिनिदाद, सूरीनाम आदि में मुख्यतः हिंदी बोली और समझी जाती है।
जून 2022 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में बहुभाषावाद को बढ़ावा देने हेतु हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा के रूप में स्वीकृति मिली है। अभी तक इसमें केवल छह भाषाएँ आधिकारिक रूप से शामिल थीं, किंतु कामकाज मुख्यतः अंग्रेजी और फ्रेंच में ही होता था। अब संयुक्त राष्ट्र के कामकाज, उद्देश्यों और गतिविधियों के बारे में सूचनाएं पूरे विश्व को हिंदी में मिलेंगी। इससे दुनिया भर में हिंदी बोलने वाले लोग अधिकाधिक जुड़ेंगे और हिंदी संपर्क भाषा के सशक्त रूप में उभर कर सामने आएगी। कितने गर्व की बात है कि संयुक्त अरब अमीरात की राजधानी अबूधाबी ने ऐतिहासिक फैसला लेते हुए हिंदी को अदालत की अरबी, अंग्रेजी के बाद तीसरी आधिकारिक भाषा के रूप में दर्जा दे दिया है। दुनिया भर में हिंदी को मिल रहे सम्मान की यह एक और मिसाल है।
आज सतत विकास और समृद्धि के लिए संस्कृति और भाषा को सहायक माना जाता है। हाल ही में जी-20 सदस्यों का भारत भी एक ऐसा भागीदार है जो अपनी संस्कृति और भाषा के जरिए समूह के शेष राष्ट्रों में दुनिया को एक सूत्र में बांधने में मुख्य भूमिका निभा रहा है, जिससे ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की भावना को बल मिल रहा है।
वैश्विक परिदृश्य में आत्मनिर्भरता कितनी आवश्यक है, यह बार-बार दोहराया जा रहा है। आत्मनिर्भर भारत बनाने का सतत प्रयास जारी है और यह भी तभी संभव हुआ है, जब हम अपनी जड़ों से जुड़े हैं।
आने वाली 14 सितंबर भाषा का उत्सव है। प्रत्येक देशवासी का दायित्व है कि वह हिंदी व अपनी मातृभाषा को अपने आचरण व व्यवहार में ले आए और उससे प्यार करे। अपनी भाषा हिंदी के ध्वजवाहक हम स्वयं बने।
जय हिंद- जय हिंदी।
वास्तव में प्राचीन दर्शन और खगोल विज्ञान के सूत्रों पर अनुसंधान का यही श्रेष्ठ अवसर है। भारत ने हजारों वर्ष पहले अंतरिक्ष की ओर देखना शुरू कर दिया था। यहां सदियों पहले अनुसंधान परंपरा थी। आर्यभट्ट, वराहमिहिर, भास्कराचार्य जैसे विद्वानों ने…. आर्यभट्ट ने आर्यभट्टीयम लिखा। भास्कराचार्य द्वितीय ने सिद्धांत शिरोमणि में बताया, ‘पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण शक्ति है।’ वराहमिहिर की पंचसिद्धांतिका में सूर्य और चंद्रग्रहण का उल्लेख है। इसमें कोई दो राय नहीं कि विज्ञान के कर्मिक विकास में गणित का अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है। ‘दशमलव पद्धति’ दुनिया को भारत की देन है। शून्य का आविष्कार भारतीय ज्ञान का ही चमत्कार है
प्राचीन विद्वान चंद्र और सूर्य ग्रहण की पूर्व घोषणा के साथ-साथ अन्य आकाशीय ग्रहों की गतिशीलता की जानकारी देते रहे हैं। भारतीय ज्ञान परंपरा के खगोलीय सूत्रों को वैज्ञानिक दृष्टि से सिद्ध करने के लिए गहन अध्ययन के फलस्वरुप ही इस महान उपलब्धि को देखा जा सकता है। लगभग 10 हजार वर्ष पुराने ऋग्वेद में प्रकृति की शक्तियों को देवता कहा गया है तथा वैदिककालीन समाज का दृष्टिकोण वैज्ञानिक ही था।
- डॉ.शील कौशिक