विवाह के बाद ससुराल से पहली बार मायके लौटी तनुजा का मन उड़ा जा रहा थाI कार उसे केचुएँ-सी रेंगती प्रतीत हो रही थीI
“ड्राईवर भैया! गाड़ी थोड़ी और तेज चलाओ न… फोर लेन सड़क है… ट्रेफिक भी न के बराबर हैI” ड्राईवर ने कार की गति बढ़ा दी।
“ओह! अब यह ट्रैफिक जाम आ गया।” वह मन ही मन कुनमुनाने लगी, काश! मेरे पंख उग आयें और मैं इस ट्रैफिक जाम के ऊपर से पंख फड़फड़ा कर गुजर जाऊँ और जल्दी से घर की देहरी छू लूँ।
कार से उतरते ही दरवाजे पर उसकी प्रतीक्षा में खड़े माँ-बाबूजी से वह लिपट गईI पहले दिन वह माँ-बाबूजी के ढ़ेरों प्रश्नों के उत्तर देती रही, कुछ छुपाती, कुछ टालती रही, कुछ मन खोल कर बताती रही I आस-पड़ौस में जैसे ही पता चला कि तनु आई है तो सब ताई-चाचियाँ, साथ की सखियाँ भी चली आईं मिलनेI
‘क्या रूप निखर आया है, हमारी बन्नो का!’ थुथकारा डालते हुए वे पूछतीं,
“और सुना ससुराल में सब कैसे हैं?”
“विवाह के चंद दिनों बाद क्या वह इतनी विशेष हो गई,” तनु सोचने लगी I
वह हँसती-खिलखिलाती, कुछ शर्माती उन सबसे बातें करती रहीI उन सबकी कुशलक्षेम पूछती रही और अपनी बताती रहीI दिन भर वह ताई-चाची से आसीसें बटोरती रही I तनु को बेहद प्रसन्नचित्त पाकर बिशम्बर अपनी पत्नी से बोले,
“ हम तो नाहक ही इसकी चिन्ता में घुले जा रहे थे I सोच रहे थे- ‘हमारी इकलौती बेटी शहर में पली-बढ़ी और पढ़ी, ठेठ गाँव में पता नहीं कैसे रह रही होगी ? दामाद मिलिट्री में मेजर हैं और लखनऊ में पोस्टेड हैं, पर हर समय तो उसे साथ नहीं रख सकते, कुछ समय गाँव में भी तो रहना पड़ सकता है I यह सोच- सोच कर हमारा अच्छा भला दिमाग खराब हो गया था I पर देख तो जरा! यह कितनी खुश है, थू…थू…नज़र न लगे बिटिया को I इसके ससुराल जाने के बाद इसी चिंता में तूने न तो ढंग से खाना बनाया और न ही खाया I चल फिर आज तो बढ़िया से पकवान हो जाएँ I”
आँखों में खुशी के आँसूं सम्भालती हुई माँ उठ कर रसोई में जाने लगी, तो तनु भी साथ हो ली I भोजन के पश्चात वह अपने कमरे में गई, जहाँ वह सबकी आँख बचा, एकांत पाकर नॉवेल पढ़ा करती थी I पलंग पर वह निश्चिंत होकर लेट गई I उसके मन रुपी आकाश पर न जाने कितनी ही स्मृतियों के गहरे रंग के भरे-भरे बादल मंडराने लगे I
दूसरे दिन सुबह उठते ही माँ शुरू हो गई,
“तनु बेटा! आज दामाद जी आने वाले हैं, अपने बैग में सामान जमा लो… तुम्हें सीधे उनके साथ पोस्टिंग स्टेशन, लखनऊ जाना है…जल्दी में कुछ छूट जायेगा I”
परन्तु तनुजा अपने बीते हुए एक-एक पल को पुन: जी लेना चाहती थी, पता नहीं इतनी दूर जाने के बाद फिर उसे कब वापिस आने का मौका मिले I वह शीघ्रता से दरवाजे से बाहर निकली तो माँ ने उसे टोका,
“ कहाँ जा रही है तनु?”
“अभी आई माँ,” यह कह कर वह निकल गई, मोहल्ले में रह रही सहेली मीना के घर की तरफ I रास्ते में पड़ोस की ताई ने रोक लिया,
“बिटिया कल तो तू ससुराल चली जाएगी…आ…मैंने खीर बनाई है…तुझे तो बहुत पसंद है न…” कहते हुए ताई हाथ पकड़ कर उसे अंदर खींच ले गई I
“मनु दीदी का क्या हाल है, बहुत दिन हो गए उन्हें देखे हुए। ताऊ जी की खांसी ठीक हुई या नहीं?” सबकी ख़ैर-ख़बर लेकर और खीर खाकर वह फिर अपनी राह हो ली I
मीना अपनी सहेली तनु को यूँ अचानक अपने घर देख कर फूल सी खिल उठी I खट्टी-मीठी बातें और चुहलबाजी करते कब में दो घंटे बीत गये, पता ही न चला I घर वापिस आई तो माँ रसोई में साथ ले जाने के लिए उसकी पसंद की हरी मैथी वाली मट्ठियाँ बना रही थी I मैथी की उठती खुशबू से उसके मुँह में पानी आने लगा I रसोई में जैसे ही उसने एक मट्ठी उठा कर खानी शुरू की,
“बेटी अपना सामान एक जगह इकठ्ठा कर लो, कुछ छूट गया तो तुम्हें ही परेशानी होगी I” माँ ने फिर चिंता जताई I
“माँ एक बार बाजार से जरूरी सामान लेने जा रही हूँ, वापस आकर सामान जमाती हूँ…” कह कर तनुजा बिना उत्तर सुने घर से बाहर निकल ही गई I बाजार में उन दुकानों पर पहूंची जहाँ से वह हेयर पिन व क्लिप, रबर बैण्ड, रिबन, चूड़ियाँ आदि खरीदती थी I
“अरी बिटिया! बहुत दिन बाद दिखाई पड़ी हो, ” दुकान वाले काका बोले I
फिर गौर से उसे एक बार देखा, उसकी मांग में सिन्दूर देख कर बोले, “बिटिया तुम्हारी तो शादी हो गई लगती है…फिर बनावटी नाराजगी दिखाते हुए कहा –
‘हूँ! मुझे बुलाया भी नहीं’…कोई बात नहीं… बताओ तुम्हें क्या चाहिए?”
“काका! दो क्लिप और हेयर बैण्ड दे दीजिए I”
“बस यही, यह लो I और ये चूड़ियाँ हमारी तरफ से शादी का तोहफ़ा समझो बिटिया I”
उसके बाद तनुजा ने सामने वाली दुकान से वही पेन और डायरी खरीदी जो वह कॉपी-किताबों के साथ यहाँ से अक्सर खरीदा करती थी I वह खान चाचा से एक-एक रूपये के लिए लड़ पड़ती थी, लेकिन आज चुपचाप सामान लेकर चल पड़ी I दुकान वाले चाचा ने उसे आवाज देकर दो रूपये वापिस लौटाते हुए कहा,
“ इतनी जल्दी पराई हो गई हो बिटिया!”
“नहीं काका ऐसी बात नहीं है,” कहते हुए वह शरमा गई।
घर वापिस लौटी तो माँ ने फिर याद दिलाया,
“बेटी अपना सामान अटेची में जमा लो, दामाद जी ज्यादा देर नहीं रुकने वाले…”
“अच्छा माँ!”
कह कर वह तुरंत पलटी और फिर दरवाजे से बाहर हो गई। उन गलियों से गुजरती हुई जहाँ वह छुपम-छुपाई खेलती व उछल-कूद करती थी, वह नीम के विशाल वृक्ष के नीचे जाकर खड़ी हो गई I सावन का महीना उसे सबसे अधिक प्रिय था। उमड़ते-घुमड़ते बादलों से लदा आसमान न जाने कब में गहरा कर बरस जाए। और फिर पेड़ों की फुनगियों से बूंदें असंख्य पत्तियों को छूतीं ऐसे नीचे उतरती थीं जैसे हम अपनी सखियों सँग यहाँ-वहाँ भागती-फिरती थीं। इस पेड़ पर वह सहेलियों संग झुला झूलती और सबसे ऊँची पींघ लेने के लिए मचल जाया करती थी I कितनी ही देर तक निहारती रही उस खामोश खड़े पेड़ को और यादों के झूलों में झूलती रही तनुजा I माँ के कठोर चेहरे की याद आते ही वह फिर घर की तरफ भागी I रास्ते में उस इमली के पेड़ के पास रुकने का मोह संवरण करने से स्वयं को न रोक सकी जिसके नीचे से वह खट्टी-खट्टी कच्ची इमली की फलियाँ बटोर कर नमक लगा कर खाती थी I हम सखियों के बीच अधिक से अधिक फलियाँ बटोरने की होड़ लगी होती थी। वह दूर बने इस मंदिर में भी हाथ जोड़ने चली आई। बचपन में वह सखियों के सँग दीपों का थाल सजा सूने रास्तों, कुओं, खाली घरों, चबूतरों, दुकानों में दीपक रखती हुई इस मंदिर में दीया रखने आती थी। पास खड़े पीपल के पेड़ के नीचे कुएं में झाँका, जहां वे सब कार्तिक माह में नहा कर कहानियाँ सुनती और मिल कर भजन गाती थीं। अतीत की खुरचन को आँखों से बरसते पानी में बहा वह घर की और दौड़ ली।
रसोई से उठती हुई खुशबू से पता लगा कि माँ रसोई में दामाद के लिए जरूर कोई पकवान बना रही है I वह चुपके से रसोई में गई I माँ कढाई में मालपुए तल रही थी और बीच-बीच में साड़ी के पल्लू से आँखें पोंछ रही थी I उसे देखते ही माथे पर त्योंरियां चढ़ा कर गुस्से में बोली,
“तेरे पाँव में टिकाव ना हैं, यहाँ-वहाँ उड़ती फिर रही है छोरी I”
दूसरे ही पल उसके मासूम से चेहरे को मुरझाया देख कर माँ की आँखें छलछला आई I वह भर्राई आवाज में बोली,
“कितनी बार कहा है तुझे, अपना सामान समेट ले तनु! तेरे कुछ कपड़े बाथरुम में टंगे हैं…तेरे बाबूजी दामाद जी के लिए अपनी पसंद की पिंक कलर की कमीज व मेचिंग टाई लाए थे… मेकअप किट पलंग के पास पड़ा है…सूखे मेवे का डिब्बा और तेरे नये लाल रंग के सैंडिल जो विदा के समय रह गये थे, मैंने तेरे बैग के पास रख दिए हैं, उन्हें संभाल कर रख ले बेटीI ”
अबकी बार भरे बादल सी तनु बरस ही पड़ी,
“माँ, सुबह से छूटा हुआ सामान ही तो बटोर रही हूँ। ” वह फफक-फफक कर रो पड़ी और माँ के गले में झूल गई ी
- डॉ.शील कौशिक